Friday, January 22, 2021

चतुर्गुणित जाप

सनातन धर्म में कलियुग को चतुर्थ युग माना गया है। अत: कलियुग में किसी भी ग्रह के निश्चित जाप संख्या के 4 गुना जाप अर्थात चतुर्गुणित जाप को ही संपूर्ण व श्रेष्ठ माना जाता है। कलियुग में अनिष्ट ग्रहों के 4 चरण करवाना श्रेयस्कर रहता है किंतु इसे आवश्यकतानुसार 1, 2 अथवा 3 चरणों में विभाजित कर भी कराया जाता है किंतु यदि जाप चरणबद्ध तरीके से होते हैं तो प्रत्येक चरण की समाप्ति के पश्चात पूर्णाहुति हवन करवाना आवश्यक होता है।


आइए जानते हैं कि नवग्रहों की शांति के लिए कितनी संख्या में जाप कराना लाभदायक होता है।

1. सूर्य- 7000 जाप प्रति चरण

2. चंद्र- 11000 जाप प्रति चरण

3. मंगल- 10000 जाप प्रति चरण

4. बुध- 9000 जाप प्रति चरण

5. गुरु- 19000 जाप प्रति चरण

6. शुक्र-16000 जाप प्रति चरण

7. शनि- 23000 जाप प्रति चरण

8. राहु- 18000 जाप प्रति चरण

9. केतु- 17000 जाप प्रति चरण। 

किस मंत्र से कराएं अनिष्ट ग्रहों के जाप:

अनिष्ट ग्रहों के शांति-विधान में निर्धारित जाप संख्या के साथ ही उचित मंत्र की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शास्त्रानुसार अनिष्ट ग्रहों का शांति अनुष्ठान बीज मंत्र व तांत्रिक मंत्र दोनों में से किसी भी एक के द्वारा संपन्न कराया जा सकता है। वर्तमान समय बीज मंत्र से जाप अनुष्ठान का प्रचलन अधिक है।

आइए जानते हैं कि नवग्रहों के बीज एवं तांत्रिक मंत्र कौन से हैं : -

1. सूर्य- ॐ घृणि: सूर्याय नम: (बीज मंत्र), ॐ ह्राँ ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नम: (तांत्रिक मंत्र)

2. चंद्र- ॐ सों सोमाय नम: (बीज मंत्र), ॐ श्रां श्रीं श्रौं चंद्रमसे नम: (तांत्रिक मंत्र)

3. मंगल- ॐ अं अंगारकाय नम: (बीज मंत्र), ॐ क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाय नम: (तांत्रिक मंत्र)

4. बुध- ॐ बुं बुधाय नम: (बीज मंत्र), ॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम: (तांत्रिक मंत्र)

5. गुरु- ॐ बृं बृहस्पतये नम: (बीज मंत्र), ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरुवे नम: (तांत्रिक मंत्र)

6. शुक्र- ॐ शुं शुक्राय नम: (बीज मंत्र), ॐ द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम: (तांत्रिक मंत्र)

7. शनि- ॐ शं शनैश्चराय नम: (बीज मंत्र), ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम: (तांत्रिक मंत्र)

8. राहु- ॐ रां राहवे नम: (बीज मंत्र), ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नम: (तांत्रिक मंत्र)

9. केतु- ॐ कें केतवे नम: (बीज मंत्र), ॐ स्त्रां स्त्रीं स्त्रौं स: केतवे नम: (तांत्रिक मंत्र) 

Saturday, January 9, 2021

यज्ञोपवीत में तीन लड़, नौ तार और 96 चौवे ही क्यों ?


यज्ञोपवीत के तीन लड़, सृष्टि के समस्त पहलुओं में व्याप्त त्रिविध धर्मों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। तैत्तिरीय संहिता 6, 3, 10, 5 के अनुसार तीन लड़ों से तीन ऋणों का बोध होता है। ब्रह्मचर्य से ऋषिऋण, यज्ञ से देवऋण और प्रजापालन से पितृऋण चुकाया जाता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश यज्ञोपवीतधारी द्विज की उपासना से प्रसन्न होते हैं। त्रिगुणात्मक तीन लड़ बल, वीर्य और ओज को बढ़ाने वाले हैं, वेदत्रयी, ऋक, यजु, साम की रक्षा करती हैं। सत, रज व तम तीन गुणों की सगुणात्मक वृद्धि करते हैं। यह तीनों लोकों के यश की प्रतीक हैं। माता, पिता और आचार्य के प्रति समर्पण, कर्तव्यपालन, कर्तव्यनिष्ठा की बोधक हैं।


सामवेदीय छान्दोग्यसूत्र में लिखा है-ब्रह्माजी ने तीन वेदों से तीन लड़ों का सूत्र बनाया विष्णु ने ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों कांडों से तिगुना किया और शिवजी ने गायत्री से अभिमंत्रित कर उसमें ब्रह्म गांठ लगा दी। इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और ग्रंथियां समेत बनकर तैयार हुआ। यज्ञोपवीत के नौ सूत्रों में नौ देवता वास करते हैं-1. ओंकार-ब्रह्म, 2. अग्नि - तेज, 3. अनंत-धैर्य, 4. चंद्र-शीतल प्रकाश, 5. पितृगण-स्नेह, 6. प्रजापति-प्रजापालन, 7. वायु-स्वच्छता 8. सूर्य-प्रताप, 9. सब देवता- समदर्शन। इन नौ देवताओं के, नौ गुणों को धारण करना भी नौ तार का अभिप्राय है। यज्ञोपवीत धारण करने वाले को देवताओं के नौ गुण-ब्रह्म, परायणता, तेजस्विता, धैर्य, नम्रता, दया, परोपकार, स्वच्छता और शक्ति संपन्नता को निरंतर अपनाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।


यज्ञोपवीत के नौ धागे नौ सद्गुणों के प्रतीक भी माने जाते हैं। ये हृदय में प्रेम, वाणी में माधुर्य, व्यवहार में सरलता, नारी मात्र के प्रति पवित्र भावना, कर्म में कला और सौंदर्य की अभिव्यक्ति, सबके प्रति उदारता और सेवा भावना, शिष्टाचार और अनुशासन, स्वाध्याय एवं सत्संग, स्वच्छता, व्यवस्था और निरालस्यता माने गए हैं, जिन्हें अपनाने का निरंतर प्रयत्न करना चाहिए। वेद और गायत्री के अभिमत को स्वीकार करना और यज्ञोपवीत पहनकर ही गायत्री मंत्र का जाप करना।


 96 चौवे (चप्पे) लगाने का अभिप्राय है, क्योंकि गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हैं और वेद 4 हैं। इस प्रकार चारों वेदों के गायत्री मंत्रों के कुल गुणनफल 96 अक्षर आते हैं। सामवेदी छान्दोग्य के तिथि 15, वार 7, नक्षत्र 27, तत्त्व 25, वेद 4, गुण 3, काल सूत्र मतानुसार 3, मास 12 इन सबका जोड़ 96 होता है। ब्रह्म पुरुष के शरीर में सूत्रात्मा प्राण का 96 वस्तु कंधे से कटि पर्यंत यज्ञोपवीत पड़ा हुआ है, ऐसा भाव यज्ञोपवीत धारण करने वाले को मन में रखना चाहिए।

दुःख से बाहर कैसे निकलें?- २

दुःख शब्द व्यक्ति की उस स्थिति को बोधित करता है जिसमें वह अपने से बाहर निकलने की स्थिति में न हो।दुः निम्न या निकृष्ट का वाचक है। ख स्थान का वाचक है जहाँ से निकलने के लिए बाह्य पुण्य बल की आवश्यकता होती है।खम् आकाश को कहते हैं।सु शोभन स्थान को प्राप्त करना सुख है।

वेद, आयुर्वेद, ज्योतिष, धर्मशास्त्र,पुराण,रत्नशास्त्र, संहिताग्रंथ सभीके सभी एकस्वर से कहते हैं-- रोग,दुःख, भय, बाधा,कष्ट सभी पाप(दुष्कृत) से उत्पन्न होते हैं।यदि व्यक्ति पाप न करे तो उसे दुःख और रोग हो ही नहीं। इसी अवधारणा से रोगों,दुःखों की चिकित्सा की जाती है।

यदि रोग न हों तो औषधि का महत्त्व ही समाप्त हो जाये--आमयो नैव सृष्टश्चेद् औषधस्य वृथोदयः(उपनिषद)

केवल रोग को औषध नष्ट कर देता है पर रोग और भय दोनों एक साथ मिले हों तो औषध और मन्त्र दोनों का प्रयोग करना चाहिए--

सदौषधै:यान्ति गदो विनाशं यथान्यथा दुःखभयानि मन्त्रै:।

स्मृतियों में वचन है कि औषध, दान,जप,होम,देव पूजा इन पांच प्रकारों से रोग और भय का नाश होता है --

तत्छान्तिरौषधैर्दानैः जपहोमसुरार्चनै:।

योगाभ्यास बल से भी दुःख और भय का विनाश होता है।मूल रूप से योग पाप को जलाता है।पाप नष्ट होने से रोग भय नष्ट हो जाते हैं ----

योगाभ्यास-बलेनैव नश्येयु: पातकानि तु।

तस्माद्योगपरो भूत्वा ध्यायेनित्यं क्रियापर:।।हारीत१/३।

वैदिकी मान्यता की घोषणा

अश्व के बिना रथ नहीं चलेगा, रथी के बिना अश्व मार्ग पर नहीं चलेगा इसीतरह विद्या और तप संयुक्त होकर भैषज्य

प्रभावशाली बनता है---

यथा रथोश्व हीनस्तु यथाश्वो रथिहीनकः।

एवं  तपश्च  विद्या  च संयुतं भैषजं भवेत् ।।हारीत ९।

आयुर्वेद आत्मा,मन,शरीर तीनों को स्वस्थ्य रहने पर ही व्यक्ति को पूर्ण स्वस्थ्य मानता है-चरक १/४६ ।

अतः दुःख, भय, रोग, बाधा को ठीक करने हेतु व्यापक प्रयास करना चाहिए।

शारीरिक रोग-दुख:

१-- शरीर में विद्यमान कालपुरुष को पीड़ित देख कर किस अंग में किस तरह का रोग कब उत्पन्न होगा इसका पूर्व अनुमान होता है।यह नब्बे प्रतिशत से भी अधिक फलीभूत होता है।

२-- गर्भज रोग दुःख -- कभी कभी गर्भ में आते ही जीव को रोग हो जाता है। हृदय में छेद, किसी अंग का पूर्ण विकसित न होना।गर्भाशय का न होना या एक ही किडनी का होना,गर्भ में ही घाव होना आदि।

३-- संसर्गज रोग दुःख --- शरीर का किसी बाहरी चीज से स्पर्शित होकर रोग ग्रस्त होना संसर्गज रोग में आता है।

४-- आभ्यन्तरिक रोग --- शरीर के भीतर अपने आप रोग का उत्पन्न होना और बढ़ कर मृत्यु मुखमें ले जाना।कैंसर, हेपटाइटिस,ट्यूमर आदि इसी श्रेणी में आते हैं।

५-- बाह्याघात रोग-कष्ट --- शरीर पर बाहर से सांघातिक चोट पहुँचना और मर्म का भेदित हो जाना।

६-- शापज रोग --- किसी व्यक्ति द्वारा गहन शब्द प्रहार जो शाप से रोग बनकर शरीर को गला दे।

७-- आभिचारिक रोग --- मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र के लगातार प्रयोग से शरीर के भीतर अंगों का निष्क्रिय होना शुरू हो जाता है।इसमें दुःस्वप्न अवश्य आता है।किसी के अदृश्य रूप से पास में होने का आभास होने लगता है।

शारीरिक रोग लज्जित,भ्रमितऔर व्यथित करते हैं। कुष्ठरोग मनको ग्लानि से भर देताहै। गुप्त इन्द्रिय का रोग लज्जित करता है।अशक्तता व्यथित करती है।

प्रमेह रोग अनेक रोगों का जनक होता है।यह व्यभिचार और हत्या आदि पातकों से उत्पन्न होता है। महापाप से महारोग, पाप से मध्यम रोग और उपपातक से साधारण रोगों की उत्पत्ति होती है। ब्रह्महत्या से कुष्ठ रोग होता है जो सूर्यदेव की आराधना और गायत्री जप होम से औषध बल से ठीक होता है।

अचानक दृष्टि चली जाए तो स्वर्ण की नौका पर विष्णु की स्वर्ण प्रतिमा रख कर पूजन कर दान देने से भैषज्य काम करता है।

मूक-बधिर दोष को दूर करने के लिए चान्द्रायण व्रत कर या करा के स्वर्ण के फल और पुस्तक को दान में दिया जाता है।

मांस के रोग में वृषभ दान किया जाता है।यह चांदी का भी बनवा कर किया जा सकता है।

जिह्वा रोग होने पर मधु दान किया जाता है।

एक अति विशिष्ट औषधि:

जब सभी उपाय व्यर्थ हो जायेंतो सवा लाख महामृत्युंजय मन्त्र का पुरश्चरण कराना चाहिए।यदि इससे तनिक भी लाभ मिलना आरम्भ हो तो पुनः द्वितीय पुरश्चरण करना चाहिए।इस प्रकार से जीवन रक्षा के लिए चार पुरश्चरण किये जाते हैं।

डिंडिम घोष: यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन ग्यारह आहुति से दूर्वा द्वारा महामृत्युंजय मंत्र से गो घृत द्वारा हवन करता है तो वह निरोग होकर शतायु को प्राप्त करता है।मृत्यु उसके निकट जाने से डरती है।

जो मृत्यु को भय ग्रस्त कर दे वह मन्त्र महामृत्युंजय है।

अपनी कुंडली से कालपुरुष की स्थापना को देख कर रोग और उसकी अवधि का सटीक अनुमान लगा कर जो ग्रह,विनायक और महामृत्युंजय का अनुष्ठान करता कराता है वह रोग मुक्त रह कर सफल जीवन जीता है। आराधना न केवल रोग और भय को दूर करती है बल्कि जीवन में समृद्धि और धर्म को लाती है।

          शरीर को व्याधि मन्दिर कहा गया है।अतः इसे केवल व्यायाम,आसन और टहल कर ठीक रखने से काम नहीं चलेगा बल्कि चोट और विषाणु( वायरस )से बचाने के लिए मन्त्र बल से बचाना पड़ता है।

         शरीर के रहने से ही वर्तमान जीवन की चेतना उन्नति को प्राप्त करती है। मृत्यु होते ही यह चेतना लुप्त हो जाती है और अगला जीवन नई समस्या लेकर आता है। अतः जीवन के सातत्य को बनाये रखने के लिए स्वस्थ्य शरीर को बनाये रखना पड़ता है। पुष्ट शरीर से तप की कठोरता को बर्दाश्त करने की क्षमता मिलती है।इसी से नया विधान बनता है जो अगले जीवन को परिष्कृत करता है।

  साभार: डॉ कामेश्वर उपाध्याय

अखिल भारतीय विद्वत्परिषद

Tuesday, January 5, 2021

मुहूर्त



 किसी भी प्रकार के मंगल कार्य करने के लिए सबसे पहले मुहूर्त और चौघड़िया देखा जाता है। 

आज कल लोग शुभघड़ी को मुहूर्त कहने लगे हैं। 

दिन व रात मिलाकर 24 घंटे के समय में, दिन में 15 व रात्रि में 15 मुहूर्त मिलाकर कुल 30 मुहूर्त होते हैं अर्थात् एक मुहूर्त 48 मिनट (2 घटी) का होता है।


मुहूर्त का नाम   समय प्रारंभ  समय समाप्त

    रुद्र               06.00.       06.48

    आहि            06.48        07.36

    मित्र              07.36        08.24

    पितृ              08.24        09.12

    वसु               09.12        10.00

    वराह            10.00         10.48

    विश्‍वेदेवा       10.48         11.36

    विधि            11.36         12.24

    सप्तमुखी      12.24         13.12

    पुरुहूत           13.12         14.00

    वाहिनी          14.00        14.48

    नक्तनकरा       14.48        15.36

    वरुण             15:36        16:24

    अर्यमा            16:24        17:12

    भग                17:12        18:00

    गिरीश             18:00       18:48

    अजपाद           18:48      19:36

    अहिर बुध्न्य      19:36       20:24

    पुष्य                20:24      21:12

    अश्विनी            21:12      22:00

    यम                 22:00      22:48

    अग्नि              22:48      23:36

    विधातॄ             23:36       24:24

    कण्ड              24:24       01:12

    अदिति            01:12        02:00

    जीव/अमृत.      02:00      02:48

    विष्णु               02:48       03:36

    युमिगद्युति.        03:36      04:24

    ब्रह्म                  04:24      05:12

    समुद्रम             05:12        06:00


दैनिक मुहूर्त निकालते समय अपने शहर के सूर्योदय से ही गणना करनी चाहिए।


मुहूर्त संबंधित ग्रंथ 

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मुहूर्त संबंधित कई ग्रंथ हैं जो वेद, स्मृति आदि धर्मग्रंथों पर आधारित है। ये ग्रंथ है- मुहूर्त मार्तण्ड, मुहूर्त गणपति मुहूर्त चिंतामणि, मुहूर्त पारिजात, धर्म सिंधु, निर्णय सिंधु आदि। शुभ मुहूर्त जानते वक्त तिथि, वार, नक्षत्र, पक्ष, अयन, चौघड़ियां और लग्न आदि का भी ध्यान रखा जाता है।


कौन-सा 'समय' सर्वश्रेष्ठ होता है

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किसी भी कार्य का प्रारंभ करने के लिए शुभ लग्न और मुहूर्त को देखा जाता है। जानिए वह कौन-सा वार, तिथि, माह, वर्ष लग्न, मुहूर्त आदि शुभ है जिसमें मंगल कार्यों की शुरुआत की जाती है।


श्रेष्ठ दिन :

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दिन और रात में दिन श्रेष्ठ है।


श्रेष्ठ मुहूर्त :

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दिन-रात के 30 मुहूर्तों में ब्रह्म मुहूर्त ही श्रेष्ठ है।


श्रेष्ठ वार :

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सात वारों में रवि, मंगल और गुरु श्रेष्ठ है।


चौघड़िया :

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शुभ चौघड़िया श्रेष्ठ है जिसका स्वामी गुरु है। अमृत का चंद्रमा और लाभ का बुध है।


श्रेष्ठ पक्ष :

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कृष्ण और शुक्ल पक्षों के दो मास में शुक्ल पक्ष श्रेष्ठ है।


श्रेष्ठ एकादशी :

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प्रत्येक वर्ष चौबीस और अधिकमास हो तो 26 एकादशियां होती हैं। शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में एकादशियों को श्रेष्ठ माना है। उनमें भी इसमें कार्तिक मास की देव प्रबोधिनी एकादशी श्रेष्ठ है।


श्रेष्ठ माह :

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मासों में चैत्र, वैशाख, कार्तिक, ज्येष्ठ, श्रावण, अश्विनी, मार्गशीर्ष, माघ, फाल्गुन श्रेष्ठ माने गए हैं उनमें भी चैत्र और कार्तिक सर्वश्रेष्ठ है।


श्रेष्ठ पंचमी :

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प्रत्येक माह में पंचमी आती है उसमें माघ माह के शुक्ल पक्ष की बसंत पंचमी श्रेष्ठ है।


श्रेष्ठ अयन :

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दक्षिणायन और उत्तरायण मिलाकर एक वर्ष माना गया है। इसमें उत्तरायण श्रेष्ठ है।


श्रेष्ठ संक्रांति :

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सूर्य की 12 संक्रांतियों में मकर संक्रांति ही श्रेष्ठ है।


श्रेष्ठ ऋ‍तु :

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 छह ऋतुओं में वसंत और शरद ऋतु ही श्रेष्ठ है।


श्रेष्ठ नक्षत्र :

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नक्षत्र 27 होते हैं उनमें कार्तिक मास में पड़ने वाला पुष्य नक्षत्र श्रेष्ठ है। इसके अलावा अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, श्रावण, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद, रेवती नक्षत्र शुभ माने गए हैं।