दुःख शब्द व्यक्ति की उस स्थिति को बोधित करता है जिसमें वह अपने से बाहर निकलने की स्थिति में न हो।दुः निम्न या निकृष्ट का वाचक है। ख स्थान का वाचक है जहाँ से निकलने के लिए बाह्य पुण्य बल की आवश्यकता होती है।खम् आकाश को कहते हैं।सु शोभन स्थान को प्राप्त करना सुख है।
वेद, आयुर्वेद, ज्योतिष, धर्मशास्त्र,पुराण,रत्नशास्त्र, संहिताग्रंथ सभीके सभी एकस्वर से कहते हैं-- रोग,दुःख, भय, बाधा,कष्ट सभी पाप(दुष्कृत) से उत्पन्न होते हैं।यदि व्यक्ति पाप न करे तो उसे दुःख और रोग हो ही नहीं। इसी अवधारणा से रोगों,दुःखों की चिकित्सा की जाती है।
यदि रोग न हों तो औषधि का महत्त्व ही समाप्त हो जाये--आमयो नैव सृष्टश्चेद् औषधस्य वृथोदयः(उपनिषद)
केवल रोग को औषध नष्ट कर देता है पर रोग और भय दोनों एक साथ मिले हों तो औषध और मन्त्र दोनों का प्रयोग करना चाहिए--
सदौषधै:यान्ति गदो विनाशं यथान्यथा दुःखभयानि मन्त्रै:।
स्मृतियों में वचन है कि औषध, दान,जप,होम,देव पूजा इन पांच प्रकारों से रोग और भय का नाश होता है --
तत्छान्तिरौषधैर्दानैः जपहोमसुरार्चनै:।
योगाभ्यास बल से भी दुःख और भय का विनाश होता है।मूल रूप से योग पाप को जलाता है।पाप नष्ट होने से रोग भय नष्ट हो जाते हैं ----
योगाभ्यास-बलेनैव नश्येयु: पातकानि तु।
तस्माद्योगपरो भूत्वा ध्यायेनित्यं क्रियापर:।।हारीत१/३।
वैदिकी मान्यता की घोषणा
अश्व के बिना रथ नहीं चलेगा, रथी के बिना अश्व मार्ग पर नहीं चलेगा इसीतरह विद्या और तप संयुक्त होकर भैषज्य
प्रभावशाली बनता है---
यथा रथोश्व हीनस्तु यथाश्वो रथिहीनकः।
एवं तपश्च विद्या च संयुतं भैषजं भवेत् ।।हारीत ९।
आयुर्वेद आत्मा,मन,शरीर तीनों को स्वस्थ्य रहने पर ही व्यक्ति को पूर्ण स्वस्थ्य मानता है-चरक १/४६ ।
अतः दुःख, भय, रोग, बाधा को ठीक करने हेतु व्यापक प्रयास करना चाहिए।
शारीरिक रोग-दुख:
१-- शरीर में विद्यमान कालपुरुष को पीड़ित देख कर किस अंग में किस तरह का रोग कब उत्पन्न होगा इसका पूर्व अनुमान होता है।यह नब्बे प्रतिशत से भी अधिक फलीभूत होता है।
२-- गर्भज रोग दुःख -- कभी कभी गर्भ में आते ही जीव को रोग हो जाता है। हृदय में छेद, किसी अंग का पूर्ण विकसित न होना।गर्भाशय का न होना या एक ही किडनी का होना,गर्भ में ही घाव होना आदि।
३-- संसर्गज रोग दुःख --- शरीर का किसी बाहरी चीज से स्पर्शित होकर रोग ग्रस्त होना संसर्गज रोग में आता है।
४-- आभ्यन्तरिक रोग --- शरीर के भीतर अपने आप रोग का उत्पन्न होना और बढ़ कर मृत्यु मुखमें ले जाना।कैंसर, हेपटाइटिस,ट्यूमर आदि इसी श्रेणी में आते हैं।
५-- बाह्याघात रोग-कष्ट --- शरीर पर बाहर से सांघातिक चोट पहुँचना और मर्म का भेदित हो जाना।
६-- शापज रोग --- किसी व्यक्ति द्वारा गहन शब्द प्रहार जो शाप से रोग बनकर शरीर को गला दे।
७-- आभिचारिक रोग --- मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र के लगातार प्रयोग से शरीर के भीतर अंगों का निष्क्रिय होना शुरू हो जाता है।इसमें दुःस्वप्न अवश्य आता है।किसी के अदृश्य रूप से पास में होने का आभास होने लगता है।
शारीरिक रोग लज्जित,भ्रमितऔर व्यथित करते हैं। कुष्ठरोग मनको ग्लानि से भर देताहै। गुप्त इन्द्रिय का रोग लज्जित करता है।अशक्तता व्यथित करती है।
प्रमेह रोग अनेक रोगों का जनक होता है।यह व्यभिचार और हत्या आदि पातकों से उत्पन्न होता है। महापाप से महारोग, पाप से मध्यम रोग और उपपातक से साधारण रोगों की उत्पत्ति होती है। ब्रह्महत्या से कुष्ठ रोग होता है जो सूर्यदेव की आराधना और गायत्री जप होम से औषध बल से ठीक होता है।
अचानक दृष्टि चली जाए तो स्वर्ण की नौका पर विष्णु की स्वर्ण प्रतिमा रख कर पूजन कर दान देने से भैषज्य काम करता है।
मूक-बधिर दोष को दूर करने के लिए चान्द्रायण व्रत कर या करा के स्वर्ण के फल और पुस्तक को दान में दिया जाता है।
मांस के रोग में वृषभ दान किया जाता है।यह चांदी का भी बनवा कर किया जा सकता है।
जिह्वा रोग होने पर मधु दान किया जाता है।
एक अति विशिष्ट औषधि:
जब सभी उपाय व्यर्थ हो जायेंतो सवा लाख महामृत्युंजय मन्त्र का पुरश्चरण कराना चाहिए।यदि इससे तनिक भी लाभ मिलना आरम्भ हो तो पुनः द्वितीय पुरश्चरण करना चाहिए।इस प्रकार से जीवन रक्षा के लिए चार पुरश्चरण किये जाते हैं।
डिंडिम घोष: यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन ग्यारह आहुति से दूर्वा द्वारा महामृत्युंजय मंत्र से गो घृत द्वारा हवन करता है तो वह निरोग होकर शतायु को प्राप्त करता है।मृत्यु उसके निकट जाने से डरती है।
जो मृत्यु को भय ग्रस्त कर दे वह मन्त्र महामृत्युंजय है।
अपनी कुंडली से कालपुरुष की स्थापना को देख कर रोग और उसकी अवधि का सटीक अनुमान लगा कर जो ग्रह,विनायक और महामृत्युंजय का अनुष्ठान करता कराता है वह रोग मुक्त रह कर सफल जीवन जीता है। आराधना न केवल रोग और भय को दूर करती है बल्कि जीवन में समृद्धि और धर्म को लाती है।
शरीर को व्याधि मन्दिर कहा गया है।अतः इसे केवल व्यायाम,आसन और टहल कर ठीक रखने से काम नहीं चलेगा बल्कि चोट और विषाणु( वायरस )से बचाने के लिए मन्त्र बल से बचाना पड़ता है।
शरीर के रहने से ही वर्तमान जीवन की चेतना उन्नति को प्राप्त करती है। मृत्यु होते ही यह चेतना लुप्त हो जाती है और अगला जीवन नई समस्या लेकर आता है। अतः जीवन के सातत्य को बनाये रखने के लिए स्वस्थ्य शरीर को बनाये रखना पड़ता है। पुष्ट शरीर से तप की कठोरता को बर्दाश्त करने की क्षमता मिलती है।इसी से नया विधान बनता है जो अगले जीवन को परिष्कृत करता है।
साभार: डॉ कामेश्वर उपाध्याय
अखिल भारतीय विद्वत्परिषद